
निगोहां।सावन का पवित्र माह चल रहा है, हर तरफ जय भोले के जयकारों की गूंज उठ रही। लेकिन इस माह का नाम आते ही जो दिमाग में एक कल्पना जागृत होती है कि, डालों पर झूले पड़े होंगे, लोग सावन गीत “मल्हार” गा रहे होंगे। लेकिन अब ऐसा नही, कहीं पर भी झूले दिखाई नही दे रहे है और सावन गीत के स्वर खामोश हो चुके है। पुरानी परंपरा भी लगभग समाप्त हो चुकी है। प्राचीन परंपरा की जगह अब मेलों में नई-नई तकनीक के झूलो ने ले ली है।
पहले की अपेक्षा सावन के त्योहार की रौनक अब फीकी पड़ती जा रही है। पेड़ों पर पड़ने वाले झूले और सावन के गीत, मल्हार के स्वर भी फिलहाल दूर-दूर तक सुनाई नहीं दे रहे हैं। निगोहां की 90 वर्षीय फूलकली कहती है कि , सावन का माह शुरू होते ही रिमझिम बारिश के बीच जगह-जगह पेड़ों पर झूले पड़ जाते थे। इस खास माह में लोग अपनी बहन- बेटियों को मायके लाते थे और महिलायें अपनी सखियों के साथ मिलकर झूलों पर बैठकर गीत, मल्हार आदि गाती थीं। इन गीत, मल्हारों के सुरीले स्वरों को सुनकर महिलाओं का ही नहीं बल्कि पुरुषों का भी मन मयूर नाचने लगता था लेकिन इस भौतिकवादी युग में लोगों की बढ़ी व्यस्तता के चलते सावन के त्योहार की परम्परागत उमंग-तरंग और रौनक खत्म हो गई है। सावन का माह शुरू हो चुका है। इसके बावजूद पेड़ों से झूले नदारद हैं और सावन के गीत दूर-दूर तक सुनाई नहीं दे रहे हैं। इस वर्ष आंशिक बारिश होने के कारण सावन की हरियाली तो चारों ओर नजर आ रही है लेकिन पेड़ों की डालों पर झूले भी नहीं दिख रहे हैं।
वही, निगोहां की एक नहुष संस्था है, जो पिछले कई वर्षों से इस परंपरा को जीवित रखने के लिए प्रयासरत है। इस दिशा में संस्था के लोग एक झूले का प्रबंध कर रहे है।
संस्था के अध्यक्ष देवेश बाजपेई (एडवोकेट) ने बताया कि सावन माह में पड़ने वाले झूले कि यह परंपरा बहुत पुरानी है। गांव की पहचान इसी से होती थी। लेकिन आधुनिक दौड़ में सब कुछ बदल गया । उनकी संस्था पुरानी परंपरा को जीवित करने के प्रयास में पिछले एक दशक से कई जगहों पर झूले डलवाती चली आ रही है।