अमेठी। नेतृत्व की परिभाषा समय और परिस्थितियों के साथ बदलती रही है। अमेठी ने इस बदलाव को नज़दीक से देखा और महसूस किया है। राहुल गांधी के सांसद रहते हुए लोगों का मानना था कि उनसे आम आदमी का सीधा संवाद लगभग असंभव था। सुरक्षा घेरे और एसपीजी की मौजूदगी के बीच उनकी पहुँच सीमित मानी जाती थी। छोटे-छोटे कामों के लिए सुनवाई मुश्किल थी और पुलिस-प्रशासन की मनमानी पर अंकुश नज़र नहीं आता था।राजनीतिक समीकरण बदले तो अमेठी को स्मृति ईरानी के रूप में महिला सांसद मिलीं। उन्होंने शुरुआत में अपने आचरण और सक्रियता से अलग छवि बनाई। गाँव-गाँव जाकर संवाद किया, लोगों की समस्याएँ सुनीं और उन्हें हल करने की कोशिश की। किसानों, महिलाओं, युवाओं और आम नागरिकों को लगा कि उनका सांसद उनके साथ खड़ा है।लेकिन समय बीतते-बीतते यही सक्रियता आलोचना का कारण भी बन गई। जब सांसद ने प्रधान स्तर के मामलों में दखल देना शुरू किया तो कुछ वर्गों ने इसे हस्तक्षेप और अहंकार की संज्ञा दी। जो छवि कभी उम्मीद का प्रतीक थी, वही धीरे-धीरे असंतोष का आधार बन गई।वर्तमान हालात में तस्वीर और भी बदल चुकी है। सांसद और विधायक अब औपचारिक पत्राचार तक सीमित हैं। क्षेत्रीय स्तर पर प्रशासनिक मनमानी का दबदबा है। जनता एक बार फिर उसी असहाय स्थिति में लौट आई है, जहाँ उसकी सुनवाई कठिन होती जा रही है।नेतृत्व का अभाव इतना स्पष्ट है कि जो नेता कल सड़कों पर संघर्ष का आह्वान करते थे, वे आज सोशल मीडिया पर बयानबाज़ी तक सीमित हैं। परिणामस्वरूप जनता दिशाहीन और निराश है।अमेठी, जिसने कभी श्रमदान और जनसहभागिता से राजनीति की नई परंपरा रची थी, आज फिर उसी बिंदु पर खड़ी है। यह केवल राजनीतिक पराजय नहीं, बल्कि नेतृत्व की अनुपस्थिति का साक्षात प्रमाण है। जनता आज भी सशक्त नेतृत्व की तलाश में है, जो उसे भरोसा और दिशा दे सके।
